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कविता

उसका खानदान

सर्वेंद्र विक्रम


नदी के साथ उसके क्या रिश्ते थे
पता नहीं चलता नक्शों और आँकड़ों से

नगर निगम के दफ्तरों में पुराने टैक्सदाताओं की सूची में भी
नहीं मिला उसका नाम
उस गली का भी कोई निशान नहीं रहा
उखड़ी छतों वाले खाली कर दिए गए घरों
या जिन फुटपाथों सड़कों पर वह चली
उनसे तो बिल्कुल ही नहीं पता चलता

कुछ दस्तावेजों से इतना पता चलता है कि
उसके खानदान में आधे से ज्यादा लोग कम सुनते थे
बहुत ऊँची आवाज में बोलते
उन्हीं के बीच उसके सपनों में घर किए रहा आसमान

उसे छू लेती थीं पेड़ों की फुनगियाँ
कभी कामना नहीं की मृत्यु के आलिंगन की
वह रुकी रही, जो पीछे रह गए हैं, साथ आ जाएँ
उसने आशा की, भर जाएँ सूनी दीवारें
तोता मैना फूलों पत्तियों तितलियों गिलहरियों से
बनाती रही, बनाती ही रही सारी उम्र
जब अंतिम रेखाएँ खीचीं और अंततः आँखें बनाई
तो रोने लगीं प्रतिमाएँ
अँधेरे में अदृश्य होने से पहले वह

देगी अपना कोई मटमैला सा स्मृति चिह्न ?
कुछ लिखना चाहेगी
शायद आखिरी अध्याय या कोई पैराग्राफ ?
कहेगी अपने आखिरी शब्द?
सुनाना चाहेगी
ऊँचे सुर में गाने वाला प्यार
छू लेने वाली हँसी


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